उसके दिल में थोड़ी सी जगह मांगी थी मुसाफिर की तरह उसने तन्हाईयो का पूरा शहर मेरे नाम कर दिया

 

लम्हा लम्हा जीवन पथ पर चलते चलते कब तन्हा हो गया पता ही नहीं चला! उम्र् के इस पड़ाव पर जब जिन्दगी की गाड़ी आखरी स्टेशन के ठहराव पर है! घनघोर निशा के गहन अन्धकार में तन्हाई की हवा झकझोर रही है?! जिधर देखिये मनहूसी लिये तन्हाई मुस्करा रही है! बता रही हैं!

ऐ मूर्ख मानव तेरा यहां कोई नहीं !सब चलती ट्रेन के मुसाफिर है! जिसका जहां तक का टिकट है वहीं तक साथ निभायेगा! फिर काहे का पश्चाताप?न कुछ‌ लेकर आया न कुछ लेकर जायेगा!फिर किस बात की उदासी!जो आया है सो जायेगा राजा रंक फकीर!— मतलबी संसार है! जीवन नाटक मंडली है!

सब अपना-अपना किरदार निभा कर चले जायेंगे! माया से ग्रसित मानव अपना मूल ही भूल जाता‌ है। श्मशान मुस्कराते‌ हुये‌‌ आने वालों से कहता है जब तेरी यही आखरी मन्जिल थी फिर काहे घमंड में चूर थे! काहे मगरुर थे!आते आते‌ बहुत देर कर दी !जब खाक में मिलना तय है! फिर किस बात का भय है।? यही तो शास्वत सत्य है! मौत सबकी निश्चित है !

फिर काहे बिचलित है! धन वैभव सम्पदा कोठी अटारी यही रह जाना है!कुछ भी साथ नहीं जाना है! फिर भी माया के महाजाल में फंसकर दुनियां का सारा निकृष्ट कार्य अपनों के लिये करते रहे! मुगालता पालते रहे? *अपने तो अपने होते हैं*? जीवन का आखरी सफर दुसरो के कन्धो का सहारा लेकर असहाय लाचार होकर करना कटु सत्य है।

माया का खेल देखिये श्मशान पर भी महज कुछ देर में जब चिता की लपलपाती आग अट्टाहास कर बाद शाही जीवन का उपहास कर रही होती! जिनके लिये सब कुछ किया!वही मुह मोड़कर अकेला छोड़कर वापस हो लिये!कुछ देर स्वार्थ में रो लिये! फिर सब कुछ भुला दिया! जीवन की हकीकत को समझना है तो कुछ देर श्मशान पर चुप चाप बैठ जाईये! हकीकत सामने आ जायेगी ?

असली समाज बाद वही दिखेगा न बड़ा न छोटा न जाति न बिरादरी बराबर की सबकी खातिरदारी सबकी भागीदारी! ब्यवस्था एक समान कर रखे हैं भोला भंडारी! न कोई आरक्षण न अलग से कोई तर्पण! सबका समान भाव से महाकाल को होता है समर्पण! आज का बदलता परिवेश कितना घिनौना हो चला है! देख सुनकर मन विचलित हो जाता‌ है!

आज पता नहीं क्यों उदास मन्जर में जीवन के सफर का गुजरता हर लम्हा तन्हा होने का एहसास कराने लगा है? जब भी किसी के परलोक वासी होने की मनहूस खबर मिलती है,! एक बारगी चलचित्र के तरह सब कुछ मनमस्तिष्क में दर्द के साथ टीस उठने लगता है!बस यही है जीवन की सच्चाई आज साथ छोड़ दी अपनी परछाई! पता नहीं इसके बाद भी सारा घिनौना कर्म कभी जाति कभी धर्म के नाम पर क्यो करता है मगरूर मानव!‌

चार दिन की जिन्दगी में भी मानवीय सम्वेदना इन्सानियत सबकी हत्या कर देता है?।फिर चली चला के बेला में पश्चाताप करके रोता है?।देश के भीतर सियासी खेल में तमाम घटनाये इन्सानियत की हत्या का पोख्ता गवाह बनकर मानवीय सम्बेदनाओ को तार तार कर रही है।

लेकिन किसी आह की परवाह किसको है! सदियों से सत्ता के लोभी लोम हर्षक घटनाओं को अन्जाम देते रहे‌ है! इतिहास गवाह है उनका अन्त भी अन्नत में जाने के पहले भयावहता के दौर से गुजरा है। इस लिये की कायनात के संचालक ने रियायत किसी के साथ नहीं किया!गिरावट मिलावट के इस दौर में जिस ठौर से हम आप गुजर रहे हैं वह मन्जिल पर पहुंचने के पहले की अलसाई शाम है?हर कोई उदास है!

बधवास‌ है! बडी मुश्किल जिन्दगी है कोई मुस्करा रहा है कोई कर रहा उपवास है । रोज रोज की दिनचर्या में शामिल हो चुका दर्द को आदमी सहन करना अपना फर्ज समझ लिया! सब कुछ बदल रहा है!आखरी सफर का अन्तिम मकाम भी आधुनिक‌ हो गया है।

दिखावटी मिलावट तो रोज देखा जा रहा जीते जी रोटी को तरह गये मरने पर बाजा बज रहा है फूलों से आखरी सफर का सामान सज रहा है!अपनों के अगाध प्रेम की अभिलाषा में तमाशा बन चुका हर क्षण निराशा के भंवर जाल में फंसकर दम तोड रहा है! समय रहते सोच को सवारिये! वख्त को पहचानिये! वर्ना कोई अपना नहीं! सच को स्वीकार कर इन्सान बनिये! जीवों पर दया करिये? बड़े भाग्य मानुष तन पावा !चूके तो केवल मिलेगा पछतावा-? कुछ भी साथ नहीं जायेगा कर्म के सिवा-

गम बहुत है खुलाशा कौन करे
मुस्करा देता हूं तमाशा कौन करे

Loading

error: Content is protected !!
%d bloggers like this: